अपनों को खोने का गम कैसे सहें?
क्या हो सकता है?
सब इंसान एक जैसे नहीं होते, इसलिए एक करीबी की मौत पर सबका दुख एक जैसा नहीं होता। कुछ लोग अपना गम सीने में ही दबा लेते हैं तो कुछ लोग लाख कोशिश करने पर भी खुद को रोक नहीं पाते। उन्हें दूसरों को अपने दिल का हाल बताने से ही राहत मिलती है। दर्द सहने का सिर्फ एक तरीका नहीं है जिसे आज़माने से हर कोई इससे उबर पाएगा। एक इंसान दुख से कैसे उबर पाता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी परवरिश किस संस्कृति में हुई, उसका स्वभाव कैसा है, उसकी ज़िंदगी अब तक कैसी रही है और उसके अज़ीज़ की मौत कैसे हुई।
सदमा कितना गहरा हो सकता है?
अपने अज़ीज़ को खोने पर कइयों को पता नहीं रहता कि आगे चलकर उन्हें कैसी भावनाओं से जूझना पड़ सकता है। मगर कुछ भावनाएँ और मुश्किलें ऐसी होती हैं जिनसे सबको गुज़रना पड़ता है और कई बार इसका अंदाज़ा भी लगाया जा सकता है। आइए इनमें से कुछ पर गौर करें।
खुद को सँभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। कुछ लोग अचानक फूट-फूटकर रोने लगते हैं, अपने अज़ीज़ को देखने के लिए तरसते हैं और उनका मिज़ाज अचानक बदल जाता है। ऊपर से अज़ीज़ की यादें और रात को उनके बारे में आनेवाले सपने उनका दर्द और बढ़ा देते हैं। पर शुरू में जब उन्हें अपने अज़ीज़ की मौत के बारे में पता चलता है तो वे बिलकुल दंग रह जाते हैं और यकीन नहीं करते। टीना के पति तन्मय की अचानक मौत हो गयी थी। वह कहती है, “शुरू में तो मैं बिलकुल सुन्न हो गयी। मैं रो भी नहीं पा रही थी। कभी-कभी मेरी ऐसी हालत हो जाती कि मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पाती थी। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि वे अब नहीं रहे।”
चिंता, गुस्सा और दोष की भावना हावी हो जाती है। आइवन कहता है, “हमारा बेटा ऐरिक जब 24 साल का था, तब उसकी मौत हो गयी। इसके बाद मैं और मेरी पत्नी सूज़न काफी समय तक गुस्से में रहे। अपने अंदर यह बदलाव देखकर हम खुद हैरान रह गए क्योंकि हम दोनों स्वभाव से गुस्सैल नहीं थे। हम दोषी भी महसूस करने लगे, क्योंकि हमें लगता था कि अपने बेटे को बचाने के लिए शायद हम कुछ और भी कर सकते थे।” अभिषेक की पत्नी जब लंबी बीमारी के बाद गुज़र गयी, तो उसे भी दोष की भावना सताने लगी। वह कहता है, “शुरू में मुझे लगा कि मैं एक बुरा इंसान हूँ, तभी ईश्वर ने मुझ पर इतना दुख आने दिया है। फिर मैं दोषी महसूस करने लगा क्योंकि मेरे साथ जो हुआ उसके लिए मैं ईश्वर को कसूरवार ठहरा रहा था।” पिछले लेख में जिस अजय की बात की गयी है, वह कहता है, “कभी-कभी मुझे अपनी पत्नी सोनिया पर गुस्सा आता था कि वह क्यों मुझे छोड़कर चली गयी। मगर फिर मुझे बुरा लगता था कि मैं ऐसा क्यों सोच रहा हूँ। आखिर इसमें उसकी क्या गलती थी।”
ठीक से सोच नहीं पाते। अपनों की मौत का दर्द सहनेवाले कभी-कभार ठीक से सोच नहीं पाते या किसी बात पर ध्यान नहीं लगा पाते। उन्हें लगता है कि उनका अज़ीज़ यहीं कहीं आस-पास है, वे मानो उसकी आवाज़ सुन सकते हैं और उसे देख सकते हैं। उन्हें किसी बात पर ध्यान लगाना या कुछ याद रखना मुश्किल लगता है। टीना कहती है, “कभी-कभी ऐसा होता कि कोई मुझसे बात कर रहा होता और मैं उस पर ध्यान नहीं दे पाती थी। मेरा दिमाग कहीं और होता था। तन्मय की मौत के वक्त जो-जो हुआ, वही सब मेरे दिमाग में घूमता रहता था। इससे मैं और परेशान हो जाती थी कि मैं किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे पा रही हूँ।”
किसी से मिलना नहीं चाहते। उन्हें लोगों के बीच रहना कुछ अजीब-सा लगता है और वे चिढ़चिढ़े हो जाते हैं। अजय कहता है, “जब मेरे आस-पास शादीशुदा लोग होते, तो मुझे अजीब-सा लगता था। अविवाहित लोगों के बीच होते समय भी मुझे ऐसा ही महसूस होता था।” आइवन की पत्नी सूज़न कहती है, “जब लोग अपनी समस्याओं के बारे में शिकायत करते, तो मुझे वह सब सुनना अच्छा नहीं लगता था क्योंकि हमारे मुकाबले उनकी समस्याएँ कुछ भी नहीं थीं। और जब लोग बताते कि उनके बच्चे कितनी तरक्की कर रहे हैं, तो मुझे खुशी तो होती थी, पर साथ ही अपने बेटे की याद से मन दुखी हो जाता था। हम दोनों जानते थे कि ज़िंदगी जैसे-तैसे चल जाएगी, पर लोगों की बातों से हम चिढ़ जाते थे, हमें अच्छा नहीं लगता था।”
सेहत बिगड़ जाती है। कई लोगों की भूख मिट जाती है, वज़न घट जाता है और ठीक से नींद नहीं आती। अरुण बताता
है कि उसके पिता की मौत के एक साल तक उसके साथ क्या हुआ, “मुझे ठीक से नींद नहीं आती थी। हर रात एक ही समय पर आँख खुल जाती और मैं पापा की मौत के बारे में सोचने लगता था।”अभिषेक की सेहत बिगड़ने लगी थी, मगर इसकी वजह साफ नज़र नहीं आ रही थी। वह कहता है, “एक डॉक्टर ने कई बार मेरी जाँच की और मुझे यकीन दिलाया कि मुझे कोई बीमारी नहीं है। मेरे शरीर में जो बीमारी के लक्षण दिख रहे थे, उसकी वजह शायद मेरी मायूसी थी।” धीरे-धीरे वे लक्षण दूर हो गए। मगर अभिषेक ने डॉक्टर से मिलकर सही किया। जो लोग दुखी होते हैं, उनमें रोग से लड़ने की ताकत कम हो जाती है, पहले से कोई बीमारी हो तो वह बढ़ जाती है या कोई नयी बीमारी लग जाती है।
ज़रूरी काम निपटाना मुश्किल लगता है। आइवन कहता है, “ऐरिक की मौत के बाद हमें काफी कुछ करना था। एक तो यह खबर अपने दोस्तों, रिश्तेदारों को देनी थी और उसके बॉस और मकान-मालिक को भी बताना था। ढेर सारे कानूनी कागज़ात भी भरने थे। ऐरिक की एक-एक चीज़ के साथ क्या करें, क्या नहीं, यह सब सोचना था। हमें इतना कुछ करना था, मगर हम तन और मन से बिलकुल पस्त थे, हममें यह सब करने की हिम्मत नहीं थी।”
कुछ लोगों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल तब आती है जब उन्हें वे काम करने होते हैं जो उनका अज़ीज़ करता था। टीना कहती है, “चाहे बैंक का काम हो या बिज़नेस का, सब तन्मय सँभालते थे। अब यह ज़िम्मेदारी मुझ पर आ गयी थी, जिससे मेरी चिंताओं का बोझ बढ़ गया। मैं सोचती थी, क्या मैं ये सारे काम ठीक से कर पाऊँगी?”
ऊपर बतायी गयी समस्याएँ पहाड़ जैसी लग सकती हैं, फिर चाहे बिगड़ती सेहत हो, मन का दुख हो या चिंताएँ। यह एक हकीकत है कि अपनों की मौत का दर्द सहना आसान नहीं होता, लेकिन जब हमें पहले से पता होता है कि कैसी मुश्किलें आ सकती हैं, तो दुख से उबरने में थोड़ी मदद मिल सकती है। यह भी याद रखिए कि यह दर्द सहनेवाले सब लोग एक-जैसी मुश्किलों का सामना नहीं करते। और कभी-कभी अपने अज़ीज़ की यादों से तड़प उठना भी स्वाभाविक है।
क्या मैं फिर कभी खुश रह पाऊँगा?
क्या हो सकता है? शुरू में दुख बरदाश्त के बाहर लगता है, मगर धीरे-धीरे कम हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि एक इंसान अपने दुख से पूरी तरह उबर जाता है या उसे फिर कभी अपने अज़ीज़ की याद नहीं आती। लेकिन शुरू-शुरू में अचानक उसकी यादों से जिस तरह दिल तड़प उठता था, वह धीरे-धीरे कम होने लगता है। पर यह भी है कि अचानक किसी बात से वही यादें फिर से ताज़ा हो जाती हैं या साल के किसी दिन उसकी याद सताने लगती है, जैसे शादी की सालगिरह या उसकी मौत की सालगिरह पर। पर वक्त के साथ-साथ कई लोग सँभल जाते हैं और रोज़मर्रा के कामों में दोबारा ध्यान दे पाते हैं। खासकर अगर परिवारवालों और दोस्तों का साथ हो और एक व्यक्ति ज़रूरी कदम उठाए, तो वह समय के चलते जीना सीख लेता है।
कितना समय लगेगा? कुछ लोग चंद महीनों में ही सँभल जाते हैं जबकि कई लोगों को एक-दो साल लग जाते हैं। कुछ लोगों को और भी ज़्यादा समय लगता है। * अभिषेक कहता है, “मैं करीब तीन साल तक गहरी निराशा में डूबा रहा।”
सब्र रखिए। एक दिन में उतना ही कीजिए जितना आपसे होगा, कल की चिंता मत कीजिए। याद रखिए कि शुरू में जो गहरा दर्द होता है वह हमेशा नहीं रहेगा। हालाँकि शुरू में बहुत दुख होता है, फिर भी आप कुछ ऐसे कदम उठा सकते हैं जिससे आपका दुख थोड़ा कम हो और आपको उबरने में ज़्यादा समय न लगे। आइए जानें कि आप क्या कर सकते हैं।
अपने अज़ीज़ की यादों से तड़प उठना स्वाभाविक है
^ पैरा. 17 कुछ लोगों को इतना गहरा सदमा लगता है कि उससे उबरने में कई साल लग जाते हैं। उन्हें किसी मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से सलाह लेने की ज़रूरत पड़ सकती है।