जंगली पशु-पक्षियों पर नज़र रखना
जंगली पशु-पक्षियों पर नज़र रखना
कल्पना कीजिए कि आपकी पीठ पर एक छोटा-सा रेडियो ट्रांसमीटर लगा दिया जाता है ताकि हर पल आपके उठने-बैठने, चलने-फिरने पर नज़र रखी जाए और उसकी जाँच की जाए। मिसेज़ गिब्सन नाम के ऐल्बाट्रॉस पक्षी की ज़िंदगी कुछ ऐसी ही है, जो एक से दूसरी जगह घूमता रहता है। उसके छोटे-से ट्रांसमीटर से खोजकर्ताओं को उस पर नज़र रखने में मदद मिलती है, क्योंकि सैटलाइट इस पक्षी पर लगे ट्रांसमीटर से सिग्नल लेकर इन्हें फिर से धरती की ओर प्रसारित करते हैं, इससे कई तरह के उपकरण लगाकर पक्षियों का अध्ययन किया जाता है। इस तरीके से जमा की गयी जानकारी से उन लाजवाब पक्षियों के बारे में नयी-नयी जानकारी मिली है और उम्मीद है कि यह जानकारी उन पक्षियों की हिफाज़त करने में काफी मददगार होगी।
ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में ला ट्रोब विश्वविद्यालय के खोजकर्ताओं ने पता लगाया है कि घुमक्कड़ ऐल्बाट्रॉस एक दिन में औसत 300 किलोमीटर तक उड़ता है। कभी-कभी वह एक दिन में 1,000 किलोमीटर तक उड़ता है। उनके पंखों का फैलाव सभी पक्षियों में सबसे ज़्यादा यानी 340 सेंटीमीटर से ज़्यादा होता है। और ये लाजवाब पक्षी समुद्र पर कई धनुषों का आकार बनाकर तैरते हुए नज़र आते हैं। कई महीनों की उड़ान में ये 30,000 से ज़्यादा किलोमीटर का सफर तय कर लेते हैं। अमरीका में इसी तरह के अध्ययनों से पता चला कि एक लेसन ऐल्बाट्रॉस ने हॉनलूलू के उत्तर-पश्चिम में टर्न द्वीप से अलूशन द्वीपों तक चार चक्कर लगाए, यानी कुल मिलाकर 6,000 किलोमीटर की दूरी तय की। और इतना लंबा सफर उसने सिर्फ अपने एक चूज़े के लिए दाना लाने के वास्ते किया।
इस तरह बढ़िया टेक्नॉलजी के इस्तेमाल से किए जानेवाले अध्ययनों से यह बात भी पता चली है कि घुमक्कड़ नर ऐल्बाट्रॉस की तुलना में मादा ऐल्बाट्रॉस की संख्या क्यों इतनी तेज़ी से कम हो गयी है। उनके उड़ान के मार्ग से पता चला है कि प्रजनन करनेवाले नर पक्षी मछली पकड़ने के लिए आम तौर पर अन्टार्टिका के आसपास ही रहते हैं, जबकि प्रजनन करनेवाली मादा ऐल्बाट्रॉस, खाने की तलाश में दूर उत्तर की तरफ जाती हैं, जहाँ मछुवाई के लिए मीलों तक जाल बिछानेवाली नाव होती हैं। इन नावों के पीछे लगे चारे को लेने की कोशिश करते-करते ये मादा पक्षी जाल में फँस जाते हैं और फिर डूब जाते हैं। कुछ जगहों में प्रजनन करनेवाले नरों की संख्या मादा ऐल्बाट्रॉस से दुगुनी है। उसी तरह दूसरी ऐल्बाट्रॉस जातियाँ भी प्रभावित हुई हैं। दरअसल, एक वक्त ऐसा आया कि ऑस्ट्रेलिया और न्यू ज़ीलैंड के पास समुद्र में बिछे लंबे जालों में फँसकर करीब 50,000 पक्षी हर साल मरने लगे। इस तरह इनकी कई जातियों के लुप्त होने का खतरा पैदा हो गया। ऑस्ट्रेलिया में घुमक्कड़ ऐल्बाट्रॉस के बारे में तो यह कह दिया गया है कि इस जाति का वजूद खतरे में है। इस तरह की जानकारी से मछुवाई के तरीकों में बदलाव लाया गया और इसलिए घुमक्कड़ ऐल्बाट्रॉस की मृत्यु दर में गिरावट आयी है। फिर भी, प्रजनन की कुछ बड़ी-बड़ी जगहों में इस जाति की संख्या लगातार कम होती जा रही है।
पक्षियों पर छल्ले लगाना
छोटे-छोटे इलॆक्ट्रॉनिक उपकरणों से आज खोजकर्ताओं को पक्षियों की कुछ जातियों पर नज़र रखने में मदद तो मिलती है, लेकिन कई सालों से बहुत ही कम लागतवाले तरीकों का भी इस्तेमाल होता आ रहा है। उनमें से एक है छल्ले लगाना, यानी धातु या प्लास्टिक का एक छोटा-सा छल्ला पक्षी के एक पैर पर बड़ी सावधानी से बिठाना, वैसे ही जैसे किसी पायल को।
स्मिथसोनियन पत्रिका कहती है कि पक्षियों का अध्ययन करने के लिए उन पर छल्ले बाँधने का चलन सन् 1899 में शुरू हुआ जब डेन्मार्क के एक स्कूल टीचर हान्स क्रिस्चियन मॉरटिनसन ने “खुद धातु के छल्ले बनाए और उन पर अपना नाम और पता खोदकर तिलियर पक्षियों के 165 चूज़ों पर बाँध दिए।” चिड़ियों पर छल्ले लगाने का चलन, जिसे यूरोप में अंगूठी पहनाना कहा जाता है, आज दुनिया भर में देखा जा सकता है। और इसकी
मदद से बहुत-सी फायदेमंद जानकारी मिलती हैं, जैसे कौन-से पक्षी कहाँ रहते हैं और कहाँ तक, कब प्रवास करते हैं, उनकी आदतें, उनके जीने का तरीका, दूसरे पक्षियों के साथ उनका नाता, उनकी संख्या, उनके ज़िंदा रहने और प्रजनन की दर। जिन जगहों में पक्षियों का शिकार करने पर कोई रोक नहीं है, वहाँ की सरकारें पक्षियों पर छल्ले लगाने के ऐसे कायदे-कानून बनाती हैं, जिनकी मदद से वे उन पक्षियों की लंबे समय तक हिफाज़त कर सकती हैं। छल्लों से यह भी पता चलता है कि पक्षियों पर बीमारियों का और ज़हरीले रसायनों का क्या असर होता है। कुछ पक्षियों में तो इंसानों को लगनेवाली बीमारियों के कीटाणु भी होते हैं, जैसे कि मस्तिष्क-ज्वर और लाइम रोग। इसलिए पक्षियों के शरीर के बारे में अध्ययन करने पर जो जानकारी मिलती है, वह हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करने में भी मददगार हो सकती है।क्या छल्ले बाँधना क्रूरता है?
जिन देशों में पक्षियों पर छल्ले लगाए जाते हैं, वहाँ इनके बारे में बहुत-से कायदे-कानून हैं और आम तौर पर छल्ले बाँधनेवालों के पास लाइसेंस होना ज़रूरी है। ऑस्ट्रेलिया का प्रकृति रक्षा विभाग कहता है कि “छल्ले बाँधनेवालों को बहुत अच्छी तरह ट्रेनिंग दी जाती है कि पक्षियों को कैसे पकड़ें, उठाएँ और उन्हें चोट पहुँचाए बिना कैसे छल्ले लगाएँ। यह ट्रेनिंग आम तौर पर दो साल तक चलती है और छल्ले बाँधने के लिए बहुत प्रैक्टिस करनी पड़ती है।” छल्ले लगाने के बारे में यूरोप, साथ ही कनाडा, अमरीका और दूसरे देशों में भी ऐसे ही कायदे-कानून हैं।
पक्षियों पर बाँधे जानेवाले छल्ले अलग-अलग आकार, नाप, रंग और धातु या प्लास्टिक के बने होते हैं। ज़्यादातर छल्ले, एल्यूमीनियम या प्लास्टिक जैसी हल्की चीज़ों से बनाए जाते हैं, लेकिन लंबे समय तक जीनेवाले या खारे पानी के आसपास रहनेवाले पक्षियों को जंग न पकड़नेवाले धातुओं, जैसे स्टेनलेस स्टील के छल्ले पहनाए जाते हैं। कुछ पक्षियों पर अलग-अलग रंगों के छल्ले लगाए जाते हैं और इनकी वजह से उन्हें दूर से ही पहचाना जा सकता है। हालाँकि इसके लिए एक ही पक्षी पर कई छल्ले लगाने पड़ते हैं, मगर इससे पक्षियों को काफी परेशानी से बचाया जा सकता है, क्योंकि उनकी पहचान करने के लिए उन्हें दोबारा पकड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
खोजकर्ता, पक्षियों पर किसी भी तरह के छल्ले या निशान लगाएँ, वे इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि पक्षियों को किसी तरह की परेशानी न हो या उनके व्यवहार, उनकी शारीरिक क्रियाओं, उनकी उम्र, दूसरे प्राणियों के साथ उनके संबंध या उनके ज़िंदा रहने की गुंजाइश पर या प्रकृति पर कोई बुरा असर न हो। उदाहरण के लिए, अगर एक पक्षी के परों पर चटकीले रंग की पट्टी बाँधी जाए तो वे शिकारी जानवरों को आसानी से नज़र आ जाएँगे या इसका उनके सहवास पर भी असर पड़ सकता है। कुछ जाति के पक्षी अपनी टाँगों पर ही मल त्याग करते हैं इसलिए उन पर छल्ले बाँधने से उन्हें संक्रमण हो सकता है। ठंडे इलाकों में, छल्लों पर बरफ जम सकती है और इससे पक्षी को खतरा हो सकता है, खासकर उन पक्षियों को जो पानी में रहते हैं। ये सिर्फ कुछ ही खतरे हैं जो पक्षियों पर निशान लगाने से पैदा हो सकते हैं। लेकिन यहाँ जिन ध्यान में रखनेवाली बातों के बारे में बताया गया है, उनसे पता चलता है कि विज्ञान को पक्षियों के शरीर और उनके व्यवहार के बारे में कितनी जानकारी हासिल करने की ज़रूरत है ताकि इस कार्यक्रम का फायदा हो, और साथ ही पक्षियों के साथ प्यार से पेश आया जाए।
अगर आप छल्ला या पट्टी बंधे हुए किसी जानवर या पक्षी को पाएँ तो?
कुछ छल्लों या पट्टियों पर टेलीफोन नंबर या पता खुदा हुआ होता है। इससे आप उसके मालिक या निशानी लगानेवाले अधिकारी से संपर्क कर सकते हैं। * फिर आप मालिक को बता सकते हैं कि आपको पट्टी कहाँ मिली थी और आप और भी छोटी-मोटी जानकारी दे सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर आप किसी मछली की खबर दें, तो जीवविज्ञानी पता लगा सकता है कि पट्टी लगाकर छोड़ने के बाद मछली ने किस रफ्तार से कितनी दूरी तय की है।
संसार भर में खोजकर्ताओं और उन लोगों के हम कितने शुक्रगुज़ार हैं जो छल्लों और पट्टियों के साथ मिलनेवाले पशु-पक्षियों की सूचना देने की ज़िम्मेदारी समझते हैं। उनकी बदौलत जंगली पशु-पक्षियों के बारे में हैरतअंगेज़ जानकारी इकट्ठी की गयी है। अब सैंड पाइपर जाति के पक्षी रॆड नॉट की ही मिसाल लीजिए जिसका वज़न 100 से 200 ग्राम तक होता है। अब वैज्ञानिक जान गए हैं कि कुछ रॆड नॉट पक्षी, हर साल कनाडा के उत्तरी कोने से लेकर दक्षिण अमरीका के सिरे तक प्रवास करते हैं और फिर लौट जाते हैं। और इस आने-जाने में वे करीब 30,000 किलोमीटर का सफर तय करते हैं!
एक बूढ़े मगर स्वस्थ रॆड नॉट पक्षी के छल्ले से मालूम पड़ा कि वह 15 सालों से यह प्रवास कर रहा है। जी हाँ, इस नन्हे से पक्षी ने अब तक 4,00,000 किलोमीटर का सफर तय किया होगा यानी पृथ्वी से चाँद की औसतन दूरी से कहीं ज़्यादा! प्रकृति के बारे में लिखनेवाले एक लेखक स्कॉट वाइडनसॉल ने, अपनी हथेली पर बैठे इस नन्हे मगर अद्भुत पक्षी के बारे में कहा: “इतनी विशाल दुनिया को एक ही सूत्र में बाँधनेवाले इन मुसाफिरों के लिए अपने दिल में गहरी श्रद्धा और आदर की भावना लिए मैं तो बस हक्का-बक्का रह जाता हूँ।” वाकई, हम धरती के इन बहुत-से प्राणियों के बारे में जितना ज़्यादा सीखते हैं, हमारे दिल में यहोवा के लिए श्रद्धा और आदर की भावना उतनी ही बढ़ जाती है जो “आकाश और पृथ्वी और . . . उन में जो कुछ है, सब का कर्त्ता है।”—भजन 146:5,6.(g02 3/22)
[फुटनोट]
^ छल्ले या पट्टियाँ इतनी पुरानी भी पड़ सकती हैं कि उन पर लिखी जानकारी को पढ़ना मुश्किल हो सकता है। लेकिन छल्लों या पट्टियों को साफ करने पर उन्हें अकसर पढ़ा जा सकता है। अमरीका में चिड़ियों पर छल्ले लगानेवाली प्रयोगशाला में हर साल ऐसे सैकड़ों छल्लों को पढ़ा जाता है।
[पेज 27 पर बक्स/तसवीरें]
निशान लगाने और खोज-खबर रखने के अलग-अलग तरीके
पक्षियों के अलावा बहुत-से प्राणियों पर अध्ययन करने के लिए भी निशान लगाए जाते हैं। किस तरह के निशान लगाए जाएँगे यह इस पर निर्भर करता है कि वैज्ञानिक क्या जानना चाहते हैं, मसलन जानवरों के शरीर की बनावट और उनकी आदतें कैसी हैं। पैरों पर छल्ले बाँधने के अलावा खोजकर्ता फीतों, पट्टियों, बिल्लों, रंगों, गोदाई, टीकों, छाप, कंठों, रेडियो-उपकरणों, माइक्रो-कंप्यूटरों, और स्टील की कीलों (जिन पर कोड-भाषा में लिखी जानकारी के बिल्ले लगे होते हैं) साथ ही अँगूठे, कान, और पूँछ की कतरनें और दूसरे बहुत-से तरीकों और उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से कुछ उपकरण तो काफी सस्ते और दूसरे काफी महँगे होते हैं जैसे एक बहुत ही छोटा इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जिसमें वीडियो कैमरे सहित रिकॉर्डर होता है और जिसकी कीमत 6,90,000 रुपये है। इसका इस्तेमाल सील मछली के पानी में डुबकी लगाने की आदतों को जानने के लिए किया जाता है।
एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, जिसे पैसिव इंटीग्रेटड ट्रांसपोन्डर कहा जाता है, जानवर की खाल के नीचे या उसके शरीर में सुन्न की गयी जगह पर लगाया जाता है और उसमें इकट्ठा की गयी जानकारी को एक खास उपकरण के ज़रिए बाहर से पढ़ा जा सकता है। वैज्ञानिक ब्लूफिन टूना मछली के अंदर एक माइक्रो-कंप्यूटर या माइक्रो-चिप लगाते हैं जिसे आर्काइवल टैग या स्मार्ट टैग कहा जाता है। ये माइक्रो-चिप नौ साल तक तापमान, गहराई, प्रकाश की तीव्रता और समय के बारे में जानकारी इकट्ठी कर सकते हैं। जब यह टैग वापस मिलता है, तो उसमें जानकारी का भंडार होता है। उसमें प्रकाश की तीव्रता के साथ समय की तुलना की जाती है, जिससे यह हिसाब लगाया जा सकता है कि उस टूना मछली ने कितनी दूरी तय की है।
साँपों पर निशान लगाने के लिए उनके कुछ शल्क कतर दिए जाते हैं; कछुए के कवच खुरच दिए जाते हैं; छिपकलियों के पैर की उंगलियाँ कतर दी जाती हैं; और मगरमच्छों और घड़ियालों की उंगलियाँ कतरकर या उनकी पूँछ से शल्क (नोकदार परत) को काटकर निशान लगाया जाता है। कुछ जानवरों को प्रकृति ने ही ऐसा अलग रूप दिया है कि उनकी पहचान के लिए उनकी तसवीर ही काफी होती है।
[तसवीरें]
काले भालू के कान पर पट्टी; डेमसॆलफिश पर लंबी पट्टी; मगरमच्छ की पूँछ पर लगे टैग
पिरीग्रीन बाज़ एक छोटे-से सैटलाइट ट्रांसमीटर के साथ
रेनबो ट्राउट मछली के अंदर टेलमेट्री उपकरण
[चित्रों का श्रेय]
भालू: © Glenn Oliver/Visuals Unlimited; डेमसॆलफिश: Dr. James P. McVey, NOAA Sea Grant Program; मगरमच्छ: Copyright © 2001 by Kent A. Vliet; पेज 2 और 27 पर बाज़: Photo by National Park Service; आदमी के साथ मछली: © Bill Banaszewski/Visuals Unlimited
[पेज 25 पर तसवीर]
तेज़ नाखूनोंवाले बाज़ पर छल्ला लगाते हुए
[चित्र का श्रेय]
© Jane McAlonan/Visuals Unlimited