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सही क्या है, यह जानना और फिर वही करना

सही क्या है, यह जानना और फिर वही करना

जीवन कहानी

सही क्या है, यह जानना और फिर वही करना

हेडन सैंडर्सन की ज़ुबानी

एक बार यीशु ने अपने प्रेरितों से कहा था: “तुम तो ये बातें जानते हो, और यदि उन पर चलो, तो धन्य हो।” (यूहन्‍ना 13:17) जी हाँ, कई बार हमें पता रहता है कि सही क्या है, मगर उसे करना हमारे लिए एक चुनौती हो सकता है! लेकिन 80 से भी ज़्यादा साल की ज़िंदगी और 40 साल की मिशनरी सेवा से मुझे यकीन हो गया है कि यीशु की बात सोलह आने सच है। परमेश्‍वर जो कहता है, उसके मुताबिक चलने से वाकई सच्ची खुशी मिलती है। आइए मैं आपको बताऊँ कि मुझे इतना यकीन क्यों है।

मेरा परिवार ऑस्ट्रेलिया के शहर, न्यू कासल में रहता था। सन्‌ 1925 में जब मैं तीन साल का था, मेरे मम्मी-पापा ने एक बाइबल भाषण सुना। उस भाषण का शीर्षक था, “आज जी रहे लाखों लोग कभी नहीं मरेंगे।” यह भाषण सुनने के बाद मम्मी को यकीन हो गया कि उन्हें सच्चाई मिल गयी है और तब से वे मसीही सभाओं में बिना नागा हाज़िर होने लगीं। मगर जहाँ तक पापा की बात है, उनकी दिलचस्पी ज़्यादा दिन तक नहीं रही। वे मम्मी के नए विश्‍वास का विरोध करने लगे और उन्होंने धमकी दी कि अगर वे इस धर्म को नहीं छोड़ेंगी, तो वो घर छोड़कर चले जाएँगे। मम्मी, पापा से बेहद प्यार करती थीं और यह हरगिज़ नहीं चाहती थीं कि हमारा परिवार टूट जाए। मगर उन्हें यह भी मालूम था कि परमेश्‍वर की आज्ञा मानना कहीं ज़्यादा ज़रूरी है, इसलिए उन्होंने ठान लिया कि परमेश्‍वर की नज़र में जो सही है, वे वही करेंगी। (मत्ती 10:34-39) नतीजा, पापा हमें छोड़कर चले गए और उसके बाद, मैंने उन्हें बहुत कम देखा।

जब मैं उन दिनों को याद करता हूँ कि मम्मी कैसे परमेश्‍वर की वफादार बनी रहीं तो उनके लिए मेरी इज़्ज़त बढ़ जाती है। उनके इसी फैसले की बदौलत मेरी दीदी, ब्यूला और मैं यहोवा की सेवा में ऐसी ज़िंदगी जी पाए जिससे हमें ढेरों आशीषें मिलीं। मम्मी के फैसले से हमें एक ज़रूरी सीख भी मिली—जब हम जानते हैं कि सही क्या है, तो हमें वही करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए।

विश्‍वास की परख

बाइबल विद्यार्थियों ने हमारे परिवार की मदद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उस ज़माने में यहोवा के साक्षी, बाइबल विद्यार्थी नाम से जाने जाते थे। हमारे साथ रहने आयीं मेरी नानी ने भी बाइबल की सच्चाई अपना ली। फिर वे और मम्मी हमेशा साथ-साथ प्रचार में जाने लगीं और दोनों को जुदा करना नामुमकिन था। वे बहुत ही मिलनसार थीं और उनकी कद-काठी और व्यवहार से गरिमा झलकती थी, इसलिए लोग उनकी इज़्ज़त करने लगे।

इसी दौरान, कलीसिया के जो भाई उम्र में मुझसे बड़े थे, उन्होंने मुझ पर खास ध्यान दिया और मुझे बढ़िया तालीम दी। कुछ ही समय के अंदर मैंने घर-घर में लोगों को गवाही देने के लिए टेस्टमनी कार्ड का इस्तेमाल करना सीख लिया। मेरे पास एक ग्रामोफोन भी था जिसे मैं अपने साथ ले जाता था और उस पर रिकॉर्ड किए गए भाषण चलाकर लोगों को सुनाता था। इसके अलावा, मैंने ऐसे जुलूसों में भी हिस्सा लिया जिनमें हम जन भाषण का विषय लिखे पोस्टर गले में लटकाकर, कस्बे की मुख्य सड़क से निकलते थे। यह काम मेरे लिए मुश्‍किल था, क्योंकि मुझे लोगों से बहुत डर लगता था। लेकिन मैं जानता था कि सही क्या है और मैंने ठान लिया था कि मैं वही करूँगा।

स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, एक बैंक में मेरी नौकरी लग गयी। इस बैंक की कई शाखाएँ, न्यू साउथ वेल्स राज्य के अलग-अलग हिस्सों में फैली थीं और मेरा काम था इन शाखाओं का दौरा करना। हालाँकि देश के इस भाग में बहुत ही कम साक्षी थे, फिर भी जो तालीम मुझे मिली उसकी वजह से मेरा विश्‍वास ज़िंदा रहा। मम्मी ने भी मुझे कई खत लिखे जिनकी मदद से मैं आध्यात्मिक रूप से मज़बूत बना रहा।

मम्मी की चिट्ठियों ने ऐन वक्‍त पर मेरी मदद की। दूसरा विश्‍वयुद्ध शुरू हो चुका था और मुझे फौज में भर्ती होने का हुक्म दिया गया। बैंक का मैनेजर चर्च का कट्टर सदस्य होने के साथ-साथ उस इलाके का फौजी कमांडर भी था। जब मैंने उसको बताया कि एक मसीही होने के नाते मैं सेना में भर्ती नहीं हो सकता, तो उसने मुझे अपना आखिरी फैसला सुनाया—अपना धर्म छोड़ दो या फिर यह बैंक! इस मामले की इंतिहा तब हुई जब मैं उस इलाके के सेना भर्ती केंद्र पहुँचा। वहाँ बैंक का मैनेजर भी मौजूद था और जब मैं उस मेज़ के पास गया जहाँ बैठे अफसर फौज में भर्ती होनेवालों के नाम दर्ज़ कर रहे थे, तो मेरा मैनेजर गौर से देख रहा था कि मैं क्या करूँगा। जब मैंने भर्ती होने के कागज़ातों पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया, तो अफसर गुस्से से तमतमा उठे। माहौल काफी गरम था, फिर भी मैंने पक्का इरादा कर लिया था कि मैं वही करूँगा जो सही है। यहोवा की मदद से मैं शांत रहा और अपने फैसले पर अटल बना रहा। बाद मैं जब मुझे पता चला कि कुछ गुंडे मुझे ढूँढ़ रहे हैं, तो मैंने फौरन अपना सामान बाँधा और अगली ट्रेन पकड़कर कस्बे से निकल गया!

कुछ समय बाद, जब मैं न्यू कासल वापस आया तो अदालत में मेरी और दूसरे सात भाइयों के मुकदमे की सुनवाई हुई जिन्होंने मेरी तरह सेना में भर्ती होने से इनकार कर दिया था। जज ने हम सभी को तीन महीने जेल में कड़ी मेहनत करने की सज़ा सुनायी। हालाँकि जेल की सज़ा काटना मेरे लिए एक कड़वा अनुभव था, फिर भी जो सही है, उसे करने पर मुझे बहुत-सी आशीषें मिलीं। जेल की कोठरी में मेरा साथी भी एक साक्षी था। उसका नाम था, हिलटन विलकिनसन। रिहाई के बाद उसने मुझे अपने फोटो स्टूडियो में काम करने की पेशकश रखी। यहीं पर मेरी मुलाकात उस लड़की से हुई जो आगे जाकर मेरी बीवी बनी। उसका नाम था, मैलडी और वह स्टूडियो में रिसेप्शनिस्ट थी। जेल से छूटने के फौरन बाद, मैंने यहोवा को अपना जीवन समर्पित करके बपतिस्मा ले लिया।

पूरे समय की सेवा का लक्ष्य रखना

हमारी शादी के बाद, मैंने और मैलडी ने न्यू कासल में अपना एक फोटो स्टूडियो खोला। जल्द ही हमारा काम इतना बढ़ गया कि इसका हमारी सेहत और यहोवा के साथ हमारे रिश्‍ते पर बुरा असर पड़ने लगा। उसी दौरान, भाई टेड जरज़ ने हमसे हमारे आध्यात्मिक लक्ष्यों के बारे में बात की। वे उस वक्‍त ऑस्ट्रेलिया में यहोवा के साक्षियों के शाखा दफ्तर में सेवा कर रहे थे और आज, वे शासी निकाय के सदस्य हैं। भाई जरज़ से बातचीत करने के बाद, मैंने और मैलडी ने फैसला किया कि हम अपना कारोबार बेच देंगे और एक सादगी-भरा जीवन जीएँगे। सन्‌ 1954 में, हमने एक छोटा-सा ट्रेलर खरीदा और विक्टोरिया राज्य के बलारत शहर जाकर पायनियर सेवा यानी पूरे समय की सेवा शुरू की।

बलारत की छोटी कलीसिया के साथ काम करते वक्‍त, यहोवा ने हमारी मेहनत पर आशीष दी। हमें यहाँ आए 18 महीने ही हुए थे कि सभाओं की हाज़िरी 17 से बढ़कर 70 हो गयी। इसके बाद, हमें दक्षिण ऑस्ट्रेलिया राज्य में सफरी काम करने का न्यौता मिला। अगले तीन सालों के दौरान, हमें एडलेड शहर के साथ-साथ ‘मरी’ नदी के किनारे बसे इलाकों की कलीसियाओं का दौरा करने की खुशी मिली। ये इलाके वाइन बनाने और रसीले फलों की पैदावार के लिए जाने जाते हैं। जी हाँ, हमारी ज़िंदगी पूरी तरह बदल चुकी थी! हमें अपने प्यारे भाई-बहनों के साथ मिलकर सेवा करने में बड़ी खुशी मिल रही थी। जो सही है, यह जानने और फिर वही करने का इससे बड़ा इनाम और क्या हो सकता है!

मिशनरी सेवा

सन्‌ 1958 में, हमने ऑस्ट्रेलिया के शाखा दफ्तर को इत्तला की कि हम “परमेश्‍वर की इच्छा” अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए जाना चाहते हैं, जो उसी साल के आखिरी हिस्से में न्यू यॉर्क शहर में आयोजित किया गया था। जवाब में शाखा दफ्तर ने हमें अमरीका में गिलियड मिशनरी स्कूल में भर्ती होने की अर्ज़ी भेजी। उस वक्‍त हमारी उम्र 35 के आस-पास थी, इसलिए हमने सोचा कि गिलियड स्कूल के लिए तय उम्र के हिसाब से तो अब हमारी उम्र इसमें हाज़िर होने की नहीं रही। फिर भी हमने अर्ज़ी भरकर भेज दी और हमें 32वीं क्लास में हाज़िर होने का न्यौता आया। गिलियड में आधा कोर्स ही खत्म हुआ था कि हमें बताया गया कि मिशनरी सेवा के लिए हमें कहाँ भेजा जा रहा है। भारत! पहले तो हम घबराए और चिंता में पड़ गए, मगर फिर हमने खुशी-खुशी यह सेवा कबूल कर ली क्योंकि हम वही करना चाहते थे जो सही है।

समुद्री-जहाज़ से सफर करने के बाद, हम सन्‌ 1959 की एक सुबह, तड़के ही बम्बई (अब मुंबई) पहुँचे। हमें जो पहला नज़ारा दिखायी दिया, वह था डॉक की ज़मीन पर हर तरफ सैकड़ों मज़दूर पसरे हुए सो रहे थे। हवा में अजीब-सी गंध थी। जब दिन चढ़ा तो हमें थोड़ा-बहुत अंदाज़ा हो गया कि यहाँ हमारी ज़िंदगी कैसी होगी। ज़िंदगी में पहली बार हमने इतनी गर्मी सही थी! हमारे स्वागत के लिए एक मिशनरी जोड़ा, लिनटन और जैनी डाउवर वहाँ मौजूद थे। उन्होंने पहले बलारत में हमारे साथ पायनियर सेवा की थी। वे हमें भारत के शाखा दफ्तर और बेथेल घर ले गए, जो पहली मंज़िल पर बना एक छोटा-सा फ्लैट था और वहाँ तक पहुँचने की सीढ़ियाँ काफी तंग थीं। यह जगह शहर के बीच के हिस्से के काफी पास थी। इस घर में छः बेथेल सेवक रह रहे थे। इनमें से एक थे, भाई एडविन स्किनर जो सन्‌ 1926 से भारत में मिशनरी सेवा कर रहे थे। उन्होंने हमें सलाह दी कि हम अपनी सेवा शुरू करने से पहले दो बिस्तर बंद खरीद लें। भारत की ट्रेनों से सफर करते वक्‍त ज़्यादातर लोगों के पास ये बिस्तर बंद हुआ करते थे और ये हमारे भी काफी काम आए।

दो दिन ट्रेन से सफर करने के बाद, हम तिरुच्चिराप्पल्ली पहुँचे जहाँ हमें सेवा करने के लिए कहा गया था। यह शहर, मद्रास (अब तमिलनाडु) नाम के दक्षिणी राज्य में है। हम वहाँ तीन खास पायनियरों के साथ सेवा करने लगे, जो भारतीय थे और वहाँ की 2,50,000 लोगों की आबादी को गवाही देने के काम में लगे हुए थे। दरअसल, यहाँ के लोगों का रहन-सहन काफी पुराने किस्म का था। एक बार, हमारे पास 4 अमरीकी डॉलर से भी कम पैसा रह गया था। कुछ वक्‍त बाद यह पैसा भी खत्म हो गया, मगर यहोवा ने हमें अकेला नहीं छोड़ा। एक आदमी जिसके साथ हम बाइबल का अध्ययन कर रहे थे, उसने हमें पैसा उधार दिया ताकि हम सभाएँ चलाने के लिए एक अच्छा-सा मकान किराए पर ले सकें। एक और दफा, जब हमारे पास खाने के लिए बहुत कम था, तब हमारा एक पड़ोसी बड़े प्यार से घर की बनी सब्ज़ी हमें दे गया। मुझे सब्ज़ी तो बहुत अच्छी लगी, मगर यह इतनी मसालेदार और तीखी थी कि मेरी हिचकियाँ बँध गयीं!

प्रचार में

हालाँकि तिरुच्चिराप्पल्ली में कुछ लोगों को अँग्रेज़ी आती थी, फिर भी ज़्यादातर लोग तमिल भाषा बोलते थे। इसलिए हमने तमिल में एक आसान-सी पेशकश सीखने के लिए खूब मेहनत की। भाषा सीखने की हमारी लगन देखकर बहुत-से लोग हमारी इज़्ज़त करने लगे।

घर-घर प्रचार करना हमें बहुत अच्छा लगता था। भारत में लोग स्वभाव से ही बहुत मिलनसार होते हैं, और ज़्यादातर घरों में लोग हमें चाय-नाश्‍ते के लिए अंदर बुलाते थे। ऐसी खातिरदारी के लिए हम बेहद एहसानमंद थे क्योंकि यहाँ का तापमान अकसर 40 डिग्री सेलसियस रहता है। अपना संदेश सुनाने से पहले, निजी मामलों के बारे में बात करना तहज़ीब माना जाता था। जैसे ज़्यादातर घर-मालिक हमसे पूछते: “आप लोग कहाँ से हैं? क्या आपके बच्चे हैं? नहीं, क्यों नहीं हैं?” और ऐसे सवाल करने के बाद, आम तौर पर वे हमें किसी अच्छे डॉक्टर के पास जाने की सिफारिश करते थे! मगर ऐसे में भी, इस तरह की बातचीत से हमें अपना परिचय देने और यह समझाने का मौका मिलता था कि लोगों को बाइबल सिखाने का हमारा काम कितना ज़रूरी है।

जिन लोगों को हमने गवाही दी उनमें से ज़्यादातर लोग हिंदू धर्म के माननेवाले थे। इस धर्म के विश्‍वास, मसीही धर्म की शिक्षाओं से एकदम अलग हैं। हिंदू धर्म की जटिल बातों पर बहस करने के बजाय, हम बस उन्हें परमेश्‍वर के राज्य की खुशखबरी सुनाते थे। और इसके हमें कई अच्छे फल मिले। छः महीनों के अंदर, तकरीबन 20 लोग मिशनरी घर में चलायी जानेवाली सभाओं में हाज़िर होने लगे। इनमें से एक आदमी सिविल इंजीनियर था जिसका नाम नल्लातंबी था। बाद में, उसने और उसके बेटे विजयालयन ने करीब 50 लोगों को यहोवा के सेवक बनने में मदद दी। विजयालयन ने कुछ समय के लिए भारत के शाखा दफ्तर में भी सेवा की थी।

सफर जारी

भारत आए हमें छः महीने भी नहीं हुए थे कि मुझे देश के पहले स्थायी ज़िला अध्यक्ष के तौर पर सेवा करने का न्यौता मिला। इसमें पूरे भारत में सफर करना, सम्मेलन आयोजित करना और नौ अलग-अलग भाषाओं के लोगों के साथ काम करना भी शामिल था। यह काफी मेहनत का काम था। हमने टिन के तीन बड़े बक्सों और अपने टिकाऊ बिस्तर बंद में छः महीने के कपड़े और दूसरा सामान बाँधा और मद्रास शहर (अब चेन्‍नई) से ट्रेन पकड़कर रवाना हुए। हमारे ज़िले के इलाकों का एक पूरा चक्कर काटने के लिए हमें लगभग 6,500 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती थी। इसलिए हम लगातार एक जगह से दूसरी जगह सफर करते थे। एक मर्तबा हम रविवार के दिन, दक्षिण भारत के शहर बैंगलोर में एक सम्मेलन में हाज़िर हुए। उसे खत्म करने के बाद हम उत्तर भारत में हिमालय पर्वतों के पास बसे दार्जिलिंग गए, क्योंकि अगले हफ्ते वहाँ एक सम्मेलन था। दार्जिलिंग जाने के लिए हमें करीब 2,700 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और रास्ते में पाँच बार ट्रेन बदलनी थी।

शुरू-शुरू में अपने सफरी काम के दौरान, हमें नयी दुनिया का समाज कार्य कर रहा है (अँग्रेज़ी) यह फिल्म दिखाना बहुत अच्छा लगता था। इस फिल्म से लोगों को पता लगता था कि धरती पर यहोवा का संगठन कहाँ तक फैला है और क्या-क्या काम कर रहा है। कई बार यह फिल्म देखने के लिए सैकड़ों लोग इकट्ठा होते थे। एक बार तो हमने यह फिल्म सड़क किनारे इकट्ठे हुए कुछ लोगों को दिखायी। जब फिल्म चल रही थी, तो मैंने देखा तूफान के काले बदल उमड़ रहे थे और बड़ी तेज़ी से हमारी तरफ बढ़ रहे थे। अब मैं क्या करता? एक बार पहले जब मैंने फिल्म बीच में रोक दी थी, तो लोग ने दंगा मचा दिया था। इसलिए मैंने फैसला किया कि मैं फिल्म चलने दूँगा, मगर साथ ही उसकी रफ्तार बढ़ा दूँगा। शुक्र है कि फिल्म बिना किसी रुकावट के खत्म हो गयी और वह भी ऐन वक्‍त पर जब बारिश की पहली बूँदें पड़ने लगीं।

अगले कुछ सालों के दौरान, मैं और मैलडी लगभग पूरा भारत घूम चुके थे। हर प्रांत का अलग खान-पान, पहनावा, और अपनी भाषा थी। सभी प्रांत देखने में भी बिलकुल अलग लगते थे। इसलिए भारत में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाना ऐसा था मानो हम एक देश से दूसरे देश जा रहे हों। वाकई यहोवा की रचना में क्या ही सुंदर विविधता है! यह विविधता भारत के वन-जीवन में भी देखी जा सकती है। एक बार जब हम नेपाल के जंगल में डेरा डाले हुए थे, हमने एक बड़े बाघ को बहुत पास से देखा। वाह, क्या शान थी उसकी! उसे देखने के बाद, फिरदौस में जीने की हमारी इच्छा और भी पक्की हुई जहाँ इंसानों और जानवरों के बीच शांति होगी।

कलीसियाओं के काम करने के तरीकों में सुधार लाना

भारत में शुरू के उन दिनों में, कलीसिया के काम-काज के बारे में संगठन से मिलनेवाली हिदायतों को और अच्छी तरह मानने की भाइयों को ज़रूरत थी। जैसे कुछ कलीसियाओं में, सभाओं के दौरान पुरुष एक तरफ बैठते थे जबकि स्त्रियाँ दूसरी तरफ। सभाएँ समय पर कभी शुरू नहीं होती थीं। एक जगह पर तो राज्य के प्रचारकों को सभाओं में बुलाने के लिए ज़ोर से घंटी बजायी जाती थी। दूसरे इलाकों में तो जब सूरज आसमान की किसी खास दिशा में होता था तब प्रचारक एक-एक करके सभा में आते थे। सम्मेलन, और सफरी अध्यक्षों का दौरा कभी होता तो कभी नहीं। दरअसल, जो सही है वह करने को भाई तैयार थे, मगर उन्हें ट्रेनिंग की ज़रूरत थी।

सन्‌ 1959 में यहोवा के संगठन ने राज्य सेवा स्कूल की शुरूआत की। दुनिया-भर में चलाए गए इस स्कूल में सर्किट अध्यक्षों, खास पायनियरों, मिशनरियों और कलीसिया के प्राचीनों को तालीम दी जाती है कि वे कैसे बाइबल में दी अपनी ज़िम्मेदारियों को और भी अच्छी तरह निभा सकते हैं। दिसंबर 1961 में जब यह स्कूल भारत में शुरू हुआ, तो मुझे इसका शिक्षक ठहराया गया। धीरे-धीरे इस तालीम का असर देश-भर की कलीसियाओं में नज़र आने लगा और वे तेज़ी से तरक्की करने लगीं। एक बार जब भाइयों को पता चल गया कि सही क्या है, तो परमेश्‍वर की आत्मा ने उन्हें वही करने को उभारा।

बड़े-बड़े अधिवेशनों से भी भाइयों को हौसला मिला और उनमें एकता बढ़ी। इनमें से एक अधिवेशन बहुत ही बेजोड़ था। वह था, “सनातन सुसमाचार” अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन जो 1963 में नयी दिल्ली में आयोजित किया गया था। भारत के कोने-कोने से साक्षी हज़ारों किलोमीटर की दूरी तय करके इस सम्मेलन में आए, यहाँ तक कि बहुतों ने अपनी सारी जमा-पूँजी इसके लिए खर्च कर दी। इस सम्मेलन में 27 दूसरे देशों से आए 583 साक्षी भी मौजूद थे, इसलिए पहली बार भारत में रहनेवाले साक्षी दूसरे देशों के इतने भाई-बहनों से मिल-जुल सके।

सन्‌ 1961 में, मुझे और मैलडी को बम्बई में बेथेल परिवार के सदस्य बनने का बुलावा आया जहाँ मैंने बाद में शाखा समिति के एक सदस्य के तौर पर सेवा की। इसके बाद मुझे परमेश्‍वर की सेवा में और भी कई ज़िम्मेदारियाँ मिलीं। कई सालों तक मैंने एशिया और मध्य पूर्व के कई इलाकों में ज़ोन अध्यक्ष के तौर पर सेवा की। वहाँ के कई देशों में हमारे प्रचार काम पर पाबंदी थी, इसलिए वहाँ के प्रचारकों को “सांपों की नाईं बुद्धिमान और कबूतरों की नाईं भोले” बनने की ज़रूरत थी।—मत्ती 10:16.

बढ़ोतरी और बदलाव

सन्‌ 1959 में जब हम पहली बार भारत आए थे, तो उस वक्‍त देश में सिर्फ 1,514 प्रचारक थे। आज यह संख्या बढ़कर 24,000 से भी ज़्यादा हो गयी है। इस बढ़ोतरी की वजह से हमें दो बार बेथेल घर की जगह बदलनी पड़ी और ज़्यादा बड़ी इमारतों में जाना पड़ा, एक बार बम्बई में और दूसरी बार बम्बई के पास। फिर मार्च 2002 में, बेथेल परिवार को एक बार फिर जगह बदलनी पड़ी और इस बार बेथेल घर की नयी इमारतें दक्षिण भारत के बैंगलोर शहर के पास खड़ी की गयीं। इस जगह पर फिलहाल बेथेल के 240 सदस्य रहते हैं और इनमें से कुछ जन 20 भाषाओं में बाइबल के साहित्य का अनुवाद करते हैं।

हालाँकि मैं और मैलडी, बैंगलोर जाने के उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, मगर अफसोस खराब सेहत की वजह से सन्‌ 1999 में ही हमें वापस ऑस्ट्रेलिया आना पड़ा। अब हम सिडनी बेथेल परिवार के सदस्यों के तौर पर सेवा कर रहे हैं। हालाँकि भारत छोड़े हमें कई साल हो गए हैं, फिर भी हमारे प्यारे दोस्तों और आध्यात्मिक बच्चों के लिए आज भी हमारे दिल में प्यार उमड़ रहा है। उनकी चिट्ठियाँ पाकर हम बाग-बाग हो जाते हैं!

मुझे और मैलडी को पूरे समय की सेवा में 50 से ज़्यादा साल हो चुके हैं। जब हम मुड़कर देखते हैं, तो पाते हैं कि यहोवा ने हम पर आशीषों की बौछार की है। पहले हम कागज़ पर लोगों की तसवीर उतारकर उसे कायम रखने का काम करते थे, मगर परमेश्‍वर की याद में लोगों को कायम रखने के लिए काम करने का फैसला हमारी ज़िंदगी का एक बेहतरीन फैसला था। अपनी ज़िंदगी में परमेश्‍वर की मरज़ी को पहली जगह देने का हमने जो फैसला किया, उससे हमें क्या ही अनमोल तजुरबे हासिल हुए हैं! जी हाँ, परमेश्‍वर जिसे सही कहता है, उसे करने से वाकई सच्ची खुशी मिलती है!

[पेज 15 पर नक्शा]

(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)

भारत

नयी दिल्ली

दार्जिलिंग

बम्बई (मुंबई)

बैंगलोर

मद्रास (चेन्‍नई)

तिरुच्चिराप्पल्ली

[पेज 13 पर तसवीरें]

सन्‌ 1942 में, हेडन और मैलडी

[पेज 16 पर तसवीर]

सन्‌ 1975 में, भारत का बेथेल परिवार