यीशु की दिल छू लेनेवाली प्रार्थना के मुताबिक काम कीजिए
“पिता . . . अपने बेटे की महिमा कर, ताकि तेरा बेटा तेरी महिमा कर सके।”—यूह. 17:1.
1, 2. ईसवी सन् 33 में अपने वफादार प्रेषितों के साथ फसह का त्योहार मनाने के बाद, यीशु ने क्या किया?
ईसवी सन् 33 के निसान 14 की शाम का वक्त था। यीशु और उसके करीबी दोस्तों ने अभी-अभी फसह का त्योहार मनाया था। इस त्योहार ने उन्हें याद दिलाया कि कैसे परमेश्वर ने इसराएलियों को मिस्र से छुड़ाया था। लेकिन यीशु के वफादार चेले और भी बड़े पैमाने पर छुड़ाए जानेवाले थे। वह कैसे? अगले दिन (मगर निसान 14 को ही) यीशु को उसके दुश्मन मौत के घाट उतारनेवाले थे। उसके सिद्ध जीवन के बलिदान से सभी इंसानों के लिए पाप और मौत से छुटकारा पाना मुमकिन होता।—इब्रा. 9:12-14.
2 इस बात को पक्का करने के लिए कि हम परमेश्वर के इस प्यारे तोहफे को कभी न भूलें, यीशु ने एक नया इंतज़ाम शुरू किया। इस इंतज़ाम ने हर साल मनाए जानेवाले फसह के त्योहार की जगह ले ली। उसने बिन खमीर की एक रोटी ली, उसे तोड़ा और अपने सभी 11 वफादार प्रेषितों को देते हुए कहा, “यह मेरे शरीर का प्रतीक है, जो तुम्हारी खातिर दिया जाना है। मेरी याद में ऐसा ही किया करना।” इसी तरह, उसने लाल दाख-मदिरा का प्याला भी लिया और उन्हें देते हुए कहा: “यह प्याला उस नए करार का प्रतीक है जो मेरे लहू के आधार पर बाँधा गया है, जो तुम्हारी खातिर बहाया जाना है।”—लूका 22:19, 20.
3. (क) यीशु की मौत के बाद क्या बड़ा बदलाव हुआ? (ख) जब हम यीशु की प्रार्थना पर गौर करेंगे, तो हमें किन सवालों के बारे में सोचना चाहिए?
3 परमेश्वर और इसराएल राष्ट्र के बीच किया गया कानून का करार जल्द ही खत्म होनेवाला था। इसके बदले, यहोवा और यीशु के अभिषिक्त चेलों के बीच एक नया करार शुरू होता। यीशु नहीं चाहता था कि उसके चेले इसराएल राष्ट्र की तरह बनें। इसराएली एक होकर परमेश्वर की उपासना नहीं कर रहे थे और इससे परमेश्वर के पवित्र नाम का अनादर हो रहा था। (यूह. 7:45-49; प्रेषि. 23:6-9) मगर यीशु चाहता था कि उसके चेले साथ मिलकर काम करें, ताकि इससे परमेश्वर के नाम की महिमा हो। तो इसके लिए यीशु ने क्या किया? उसने एक ऐसी प्रार्थना में अपने पिता से मदद माँगी, जो सबसे खूबसूरत प्रार्थना है और जिसे पढ़ने का सम्मान इंसानों को मिला है। (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।) यह प्रार्थना यूहन्ना 17:1-26 में दर्ज़ है। जब हम इस प्रार्थना पर गौर करेंगे, तो आइए हम इन सवालों के बारे में सोचें: “क्या परमेश्वर ने यीशु की प्रार्थना का जवाब दिया? क्या मैं इस प्रार्थना के मुताबिक काम कर रहा हूँ?”
यीशु के लिए सबसे ज़्यादा अहमियत रखनेवाली बात
4, 5. (क) यीशु की प्रार्थना के शुरूआती शब्दों से हम क्या सीखते हैं? (ख) यीशु ने अपने लिए यहोवा से जो माँगा, उसका यहोवा ने कैसे जवाब दिया?
4 देर रात तक यीशु ने अपने चेलों को कई बेहतरीन बातें सिखायीं। फिर उसने स्वर्ग की तरफ नज़रें उठाकर प्रार्थना की: “पिता, वह घड़ी आ गयी है। अपने बेटे की महिमा कर, ताकि तेरा बेटा तेरी महिमा कर सके, क्योंकि तू ने उसे सब इंसानों पर अधिकार दिया है ताकि जितनों को तू ने उसे दिया है उन सबको वह हमेशा की ज़िंदगी दे सके। . . . जो काम तू ने मुझे दिया है उसे पूरा कर मैंने धरती पर तेरी महिमा की है। इसलिए अब हे पिता, मुझे अपने साथ वह महिमा दे, जो दुनिया के शुरू होने से पहले मेरी तेरे साथ थी।”—यूह. 17:1-5.
5 यीशु ने अपनी प्रार्थना में सबसे पहले उन बातों का ज़िक्र किया, जो उसके लिए सबसे ज़्यादा अहमियत रखती थीं। सबसे बढ़कर, उसे अपने पिता की महिमा की फिक्र थी, जो उसकी आदर्श प्रार्थना में भी दिखायी देती है, जिसमें सबसे पहले उसने यह गुज़ारिश की: “हे पिता, तेरा नाम पवित्र किया जाए।” (लूका 11:2) फिर उसने अपने चेलों के बारे में प्रार्थना की। उसने गुज़ारिश की कि “उन सबको वह हमेशा की ज़िंदगी दे सके।” इसके बाद यीशु ने अपने लिए कुछ माँगा। उसने कहा: “हे पिता, मुझे अपने साथ वह महिमा दे, जो दुनिया के शुरू होने से पहले मेरी तेरे साथ थी।” यहोवा ने अपने वफादार बेटे की प्रार्थना सुनी और जो उसने अपनी प्रार्थना में माँगा था, उससे कहीं ज़्यादा यहोवा ने उसे दिया। उसने यीशु को ‘ऐसा नाम दिया जो स्वर्गदूतों के नाम से कहीं श्रेष्ठ है।’—इब्रा. 1:4.
‘एकमात्र सच्चे परमेश्वर का ज्ञान लेते रहना’
6. हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए प्रेषितों को क्या करना था? और हम कैसे जानते हैं कि प्रेषित ऐसा करने में कामयाब हुए?
6 अपनी प्रार्थना में, यीशु ने इस बात का भी ज़िक्र किया कि हमेशा की ज़िंदगी का तोहफा पाने के लिए हमें क्या करना चाहिए। (यूहन्ना 17:3 पढ़िए।) उसने कहा कि हमें परमेश्वर और मसीह का ‘ज्ञान लेते रहना’ चाहिए। ऐसा करने का एक तरीका है, यहोवा और उसके बेटे के बारे में और सीखने के लिए हमसे जितना हो सके उतना करना। दूसरा तरीका है, जो बातें हमने सीखी हैं, उन्हें लागू करना। प्रेषित ये दोनों तरीके पहले से ही अपना चुके थे, जैसा कि यीशु ने अपनी प्रार्थना में कहा: “जो बातें तू ने मुझे बतायी हैं वे मैंने उन तक पहुँचायी हैं। उन्होंने ये बातें स्वीकार की हैं।” (यूह. 17:8) लेकिन हमेशा की ज़िंदगी पाने के लिए, उन्हें लगातार परमेश्वर के वचन पर मनन करना था और अपनी रोज़ाना ज़िंदगी में सीखी बातों को लागू करना था। क्या वफादार प्रेषित धरती पर अपनी ज़िंदगी के आखिरी वक्त तक ऐसा करते रहने में कामयाब हुए? बेशक वे कामयाब हुए। हम यह इसलिए जानते हैं क्योंकि उनमें से हरेक के नाम, नयी यरूशलेम के 12 नींव के पत्थरों पर हमेशा के लिए लिखे गए हैं।—प्रका. 21:14.
7. परमेश्वर के बारे में ‘ज्ञान लेते रहने’ का क्या मतलब है? और ऐसा करना क्यों इतना ज़रूरी है?
7 अगर हम हमेशा की ज़िंदगी जीना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम परमेश्वर का “ज्ञान लेते रहें।” इसका क्या मतलब है? ‘ज्ञान लेते रहने’ के लिए जो यूनानी शब्द इस्तेमाल किया गया है, उसका अनुवाद “लगातार जानते रहना” भी किया जा सकता है। तो परमेश्वर का ‘ज्ञान लेते रहने’ का मतलब है, उसके बारे में लगातार और ज़्यादा-से-ज़्यादा सीखते रहना। लेकिन इसमें सिर्फ उसके गुणों और मकसद के बारे में जानना काफी नहीं है। हमें उससे दिल से प्यार और गहरी दोस्ती भी करनी चाहिए। साथ ही, हमें अपने भाई-बहनों के लिए भी प्यार दिखाना चाहिए। बाइबल कहती है: “जो प्यार नहीं करता वह परमेश्वर को नहीं जान पाया है।” (1 यूह. 4:8) परमेश्वर को जानने का यह भी मतलब है कि हम उसकी आज्ञाएँ मानें। (1 यूहन्ना 2:3-5 पढ़िए।) ऐसे लोगों में गिने जाना जो यहोवा को जानते हैं, वाकई एक बहुत बड़े सम्मान की बात है! मगर हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम उसके साथ अपने अनमोल रिश्ते को कभी टूटने न दें, जैसा यहूदा इस्करियोती ने किया था। इसलिए आइए हम यहोवा के साथ अपने रिश्ते को मज़बूत करते रहने के लिए कड़ी मेहनत करें। अगर हम ऐसा करें, तो यहोवा हमें हमेशा की ज़िंदगी का तोहफा देगा।—मत्ती 24:13.
“अपने नाम की खातिर”
8, 9. धरती पर अपनी सेवा के दौरान, यीशु की सबसे बड़ी चिंता क्या थी? और किस धार्मिक रिवाज़ से उसे नफरत रही होगी?
8 जब हम यूहन्ना के अध्याय 17 में यीशु की प्रार्थना पढ़ते हैं, तो इससे यह बात साफ हो जाती है कि यीशु न सिर्फ अपने प्रेषितों से बहुत प्यार करता था, बल्कि हमसे भी करता है। (यूह. 17:20) मगर हमें यह बात भी समझने की ज़रूरत है कि यीशु के लिए हमारा उद्धार सबसे ज़्यादा अहमियत रखनेवाली चीज़ नहीं है। धरती पर अपनी सेवा के शुरू से लेकर आखिर तक, उसके लिए सबसे ज़्यादा यही बात अहमियत रखती थी कि उसके पिता का नाम पवित्र किया जाए और उसकी महिमा हो। मिसाल के लिए, जब यीशु ने पहले समझाया कि वह धरती पर क्यों आया था, तो उसने यशायाह के खर्रे से यह पढ़ा: “यहोवा की पवित्र शक्ति मुझ पर है, क्योंकि उसने गरीबों को खुशखबरी सुनाने के लिए मेरा अभिषेक किया है।” हमें यकीन है कि जब यीशु ने यह पढ़ा, तो उसने ज़रूर परमेश्वर के नाम का सही-सही उच्चारण किया होगा।—लूका 4:16-21.
9 यीशु के धरती पर आने से बहुत पहले, यहूदी धार्मिक नेताओं ने लोगों को सिखाया कि वे परमेश्वर का नाम इस्तेमाल न करें। ज़रा सोचिए कि यीशु इस रिवाज़ से कितनी नफरत करता होगा। उसने उन धार्मिक नेताओं से कहा: “मैं अपने पिता के नाम से आया हूँ, मगर तुम मुझे स्वीकार नहीं करते। अगर कोई और अपने ही नाम से आता तो तुम उसे स्वीकार कर लेते।” (यूह. 5:43) फिर अपनी मौत से कुछ दिन पहले, यीशु ने प्रार्थना में एक बार फिर से अपनी सबसे ज़रूरी चिंता ज़ाहिर की: “पिता, अपने नाम की महिमा कर।” (यूह. 12:28) और जिस प्रार्थना पर अभी हम चर्चा कर रहे हैं, उससे भी यह बात साफ है कि यीशु की ज़िंदगी में सबसे ज़रूरी बात थी, अपने पिता के नाम की महिमा करना।
10, 11. (क) यीशु ने अपने पिता का नाम कैसे ज़ाहिर किया? (ख) यीशु के चेले यहोवा का नाम क्यों दूसरों को बता रहे हैं?
10 यीशु ने प्रार्थना में कहा, “मैंने तेरा नाम उन लोगों पर ज़ाहिर किया है जिन्हें तू ने दुनिया में से मुझे दिया है। वे तेरे थे और तू ने उन्हें मुझे दिया है और उन्होंने तेरा वचन माना है। यही नहीं, अब से मैं इस दुनिया में नहीं रहूँगा मगर वे इसी दुनिया में हैं और मैं तेरे पास आ रहा हूँ। पवित्र पिता, अपने नाम की खातिर जो तू ने मुझे दिया है, उनकी देखभाल कर, ताकि वे भी एक हो सकें जैसे हम एक हैं।”—यूह. 17:6, 11.
11 जब यीशु ने अपने चेलों पर अपने पिता का नाम “ज़ाहिर किया,” या उन्हें बताया, तो उसने यहोवा का नाम इस्तेमाल करने के अलावा कुछ और भी किया। यीशु ने उन्हें यह जानने में भी मदद दी कि यहोवा असल में कौन है, यानी उसके लाजवाब गुण क्या हैं और वह किस तरह हमारे साथ प्यार से पेश आता है। (निर्ग. 34:5-7) यीशु आज स्वर्ग में राजा है और वह आज भी अपने चेलों की मदद कर रहा है कि वे यहोवा का नाम पूरी दुनिया में ज़ाहिर करें। यह काम क्यों किया जा रहा है? ताकि इस दुष्ट दुनिया के अंत से पहले ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग यहोवा के बारे में जान सकें। और जब वह वक्त आएगा, तो वह अपने वफादार साक्षियों को बचाएगा और सब यहोवा का महान नाम जान लेंगे!—यहे. 36:23.
“जिससे दुनिया यकीन कर सके”
12. यीशु ने जो काम शुरू किया था, उसे पूरा करने के लिए हमें कौन-सी तीन चीज़ें करने की ज़रूरत है?
12 यीशु ने अपने चेलों को आज्ञा दी कि जो काम उसने शुरू किया था, उसे वे पूरा करें। उसने प्रार्थना की: “ठीक जैसे तू ने मुझे दुनिया में भेजा है, वैसे ही मैंने भी उन्हें दुनिया में भेजा है।” मगर यीशु जानता था कि उन्हें इस काम में मदद की ज़रूरत पड़ेगी। इसलिए जब वह उनके साथ था, तब उसने कड़ी मेहनत की ताकि वह चेलों को उनकी कमज़ोरियों से लड़ने में मदद दे सके। साथ ही, यीशु ने अपनी प्रार्थना में यहोवा से गुज़ारिश की कि वह उसके चेलों को तीन खास काम पूरा करने में मदद दे। सबसे पहले, उसने प्रार्थना की कि उसके चेले शैतान की दुनिया का भाग न हों। दूसरा, उसने प्रार्थना की कि उसके चेले परमेश्वर के वचन के मुताबिक काम करें और पवित्र बने रहें। तीसरा, उसने कई बार गिड़गिड़ाकर बिनती की कि उसके चेले एकता में बंधे रहें, ठीक जैसे वह और उसका पिता एकता में हैं। इसलिए हममें से हरेक को खुद से पूछना चाहिए: “क्या मैं वे तीन चीज़ें कर रहा हूँ, जो यीशु ने अपनी प्रार्थना में कही थीं?” यीशु को यकीन था कि अगर उसके चेले ऐसा करें, तो बहुत-से लोग उनका संदेश कबूल कर पाएँगे।—यूहन्ना 17:15-21 पढ़िए।
13. पहली सदी में यहोवा ने यीशु की प्रार्थना का जवाब कैसे दिया?
13 जब हम प्रेषितों की किताब का अध्ययन करते हैं, तब हमें पता चलता है कि यहोवा ने यीशु की प्रार्थना का जवाब दिया। ज़रा सोचिए पहली सदी के मसीहियों के बीच फूट पड़ने की कितनी गुंजाइश थी, क्योंकि ये मसीही यहूदियों और गैर-यहूदियों, अमीर और गरीब, दास और दास के मालिकों से मिलकर बने थे। फिर भी, वे इस कदर एकता में जुड़ गए थे कि प्रेषित पौलुस ने उनकी तुलना शरीर के अलग-अलग अंगों से की, जिनका सिर यीशु है। (इफि. 4:15, 16) शैतान की इस बँटी हुई दुनिया में ऐसी एकता होना कितना बड़ा चमत्कार है! इसका सारा श्रेय यहोवा को जाना चाहिए, जिसकी ज़बरदस्त पवित्र शक्ति की बदौलत ही यह मुमकिन हो पाया है।—1 कुरिं. 3:5-7.
14. हमारे दिनों में यीशु की प्रार्थना का जवाब कैसे दिया गया है?
14 मगर दुख की बात है कि प्रेषितों की मौत के बाद चेलों के बीच की एकता बरकरार नहीं रही। इसके बजाय, जैसे भविष्यवाणी की गयी थी, सच्चे मसीही धर्म के खिलाफ बगावत करनेवाले उठ खड़े हुए और वे मंडलियों में झूठी शिक्षाएँ फैलाने लगे। नतीजा, ईसाईजगत में अलग-अलग गुट बन गए। (प्रेषि. 20:29, 30) मगर 1919 में, यीशु ने अभिषिक्त मसीहियों को झूठे धर्मों के शिकंजे से छुड़ाया और उन्हें ‘पूरी तरह से एकता में जोड़नेवाले जोड़’ में इकट्ठा किया। (कुलु. 3:14) एक होकर उन्होंने दुनिया-भर में जो प्रचार किया है, उसका क्या नतीजा रहा है? “सब राष्ट्रों और गोत्रों और जातियों और भाषाओं” में से 70 लाख से ज़्यादा “दूसरी भेड़ें,” अभिषिक्त मसीहियों के साथ एक ही झुंड बनकर यहोवा की उपासना कर रही हैं। (प्रका. 7:9; यूह. 10:16) यीशु की प्रार्थना का क्या ही शानदार जवाब, “जिससे कि दुनिया यह जाने कि तू [यहोवा] ने मुझे भेजा है और तू ने उनसे भी वैसे ही प्यार किया है जैसे मुझसे किया है”!—यूह. 17:23.
दिल छू लेनेवाले आखिरी शब्द
15. यीशु ने अपने अभिषिक्त चेलों के लिए कौन-सी खास दरखास्त की?
15 निसान 14 की शाम, यीशु ने अपने प्रेषितों के साथ एक करार किया कि वे उसके साथ स्वर्ग के राज में राज करेंगे। (लूका 22:28-30) इस तरह उसने अपने प्रेषितों को “महिमा” या सम्मान दिया। (यूह. 17:22) इसलिए यीशु अब उन सभी के लिए प्रार्थना करता है, जो आगे चलकर उसके अभिषिक्त चेले बनते: “हे पिता, जिन्हें तू ने मुझे दिया है उनके बारे में मैं चाहता हूँ कि जहाँ मैं हूँ वे भी मेरे साथ हों, ताकि वे मेरे उस वैभव को देख सकें जो तू ने मुझे दिया है, क्योंकि तू ने दुनिया की शुरूआत के पहले से मुझसे प्यार किया है।” (यूह. 17:24) यीशु की दूसरी भेड़ें, अभिषिक्त जनों को मिलनेवाले इनाम की वजह से उनसे जलती नहीं, बल्कि खुश होती हैं। यह इस बात का एक और सबूत है कि सच्चे मसीही आज पूरी दुनिया में एकता के बंधन में बंधे हैं।
16, 17. (क) अपनी प्रार्थना के आखिर में, यीशु ने क्या करते रहने की ठान ली? (ख) हमें क्या करने की ठान लेनी चाहिए?
16 दुनिया के ज़्यादातर लोग इस बात को नकार देते हैं कि यहोवा के लोग सचमुच एकता में हैं और उसके लोग उसे सच में जानते हैं। ऐसा अकसर इसलिए होता है क्योंकि धार्मिक अगुवे लोगों को झूठ का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसा यीशु के दिनों में भी हुआ था। इसलिए उसने अपनी प्रार्थना इन दिल छू लेनेवाले शब्दों के साथ खत्म की: “हे सच्चे पिता, दुनिया वाकई तुझे नहीं जान पायी है, मगर मैंने तुझे जाना है और इन्होंने भी जाना है कि तू ने मुझे भेजा है। मैंने तेरा नाम उन्हें बताया है और आगे भी बताऊँगा ताकि जो प्यार तू ने मुझसे किया, वह उनमें भी हो और मैं उनके साथ एकता में रहूँ।”—यूह. 17:25, 26.
17 कौन इस बात को नकार सकता है कि यीशु ने अपनी प्रार्थना के मुताबिक काम किया? मंडली का सिर होने के नाते वह आज भी लगातार हमारी मदद कर रहा है, ताकि हम दूसरों को उसके पिता का नाम और उसका मकसद बता सकें। आइए जोश के साथ प्रचार करने और चेले बनाने की यीशु की आज्ञा मानकर हम उसके मुखियापन के अधीन रहें। (मत्ती 28:19, 20; प्रेषि. 10:42) और आइए हम अपनी अनमोल एकता बनाए रखने के लिए भी मेहनत करते रहें। ऐसा करने से, हम यीशु की प्रार्थना के मुताबिक काम कर रहे होंगे। इससे यहोवा के नाम की महिमा होगी और हमें हमेशा की खुशियाँ भी मिलेंगी।