जीवन कहानी
अपनी कमज़ोरियों के बावजूद ताकत पाना
व्हीलचेयर पर 65 पाउंड (29 किलो) का मेरा कमज़ोर शरीर देखकर कोई नहीं कहेगा कि मैं ताकतवर हूँ। लेकिन जैसे-जैसे मेरे शरीर की ताकत खत्म होती है, मेरे अंदर की ताकत मुझे मज़बूत बनाती जाती है। आइए, मैं आपको बताती हूँ कि किस तरह कमज़ोरी और ताकत ने मेरी ज़िंदगी को ढाला।
बचपन का खयाल आते ही, मुझे बीते दिनों के वे खुशी के पल याद आ जाते हैं, जो मैंने अपने मम्मी-पापा के साथ, दक्षिण फ्रांस के एक छोटे-से घर में बिताए थे। वहाँ पापा ने मेरे लिए एक झूला बनाया था, मुझे उसमें झूलना और बगीचे में दौड़ना अच्छा लगता था। सन् 1966 में यहोवा के साक्षी मेरे घर आए और मेरे पापा के साथ उनकी लंबी बातचीत हुई। बस सात महीनों बाद, मेरे पापा ने ठान लिया कि वे एक साक्षी बनेंगे। जल्द ही मम्मी, पापा के नक्शे-कदम पर चलने लगी, उन दोनों ने मिलकर एक प्यार-भरे माहौल में मेरी परवरिश की।
मेरे मम्मी-पापा स्पेन के थे, हमारे वहाँ लौटने के बाद, मेरी परेशानियाँ को दौर शुरू हो गया। मेरे हाथों और ऐड़ी के पास की हड्डियों में बहुत दर्द होने लगा। दो साल तक यहाँ-वहाँ डॉक्टरों के धक्के खाने के बाद, हमारी मुलाकात एक जाने-माने रूमाटॉलजिस्ट से हुई जिसने बड़े दुख के साथ कहा: “आपने आने में बहुत देर कर दी।” इसे सुनकर माँ रो पड़ी। डॉक्टर ने मेरे मम्मी-पापा से कहा कि मुझे लंबे समय तक रहनेवाला अर्थराइटिस है और मेरे शरीर का रोग-प्रतिरक्षा तंत्र यानी इम्यून सिस्टम अपने आप ही अच्छी कोशिकाओं को मारने लगता है, जिससे जोड़ों में दर्द और सूजन आ जाती है। हालाँकि दस साल की उम्र में मुझे ज़्यादा कुछ समझ नहीं आया, लेकिन इतना तो एहसास हो गया था कि मामला गंभीर है।
डॉक्टर ने बच्चों के आरोग्य-निवास में मेरा इलाज कराने का सुझाव दिया। वहाँ की पुरानी इमारतों को देखकर मेरा मन उदास हो गया। वहाँ का अनुशासन बहुत सख्त था। एक नन ने मेरे बाल काटे, और मुझे ढीली-ढाली यूनिफॉर्म पहनायी। मैं रोते-रोते सोचने लगी कि ‘मैं यहाँ कैसे जी पाऊँगी?’
यहोवा मेरे लिए असल शख्स बना
मेरे मम्मी-पापा ने मुझे यहोवा की उपासना करना सिखाया था, इसलिए मैंने आरोग्य-निवास के कैथोलिक रिवाज़ों में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। लेकिन नन यह समझ नहीं पायी कि मैंने क्यों इनकार किया। मैंने यहोवा से गुज़ारिश की कि वह मुझे कभी न छोड़े और तभी मुझे ऐसा लगा मानो यहोवा अपनी बाहें फैलाकर मेरी हिफाज़त कर रहा है, ठीक जैसे एक प्यार करनेवाला पिता अपने हाथ बढ़ाकर बच्चे को गले लगाता है।
मेरे मम्मी-पापा को शनिवार के दिन कुछ देर मुझसे मिलने की इजाज़त दी गयी थी। वे मेरे पढ़ने के लिए बाइबल साहित्य लाते थे, ताकि मेरा विश्वास मज़बूत बना रहे। आमतौर पर वहाँ बच्चों को अपनी किताबें रखने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन नन ने मुझे बाइबल, जो मैं हर दिन पढ़ती थी, उसके साथ इन साहित्यों को भी प्रकाशितवाक्य 21:3, 4) हालाँकि कभी-कभी मैं उदास और अकेला महसूस करती थी, लेकिन मैं खुश थी कि यहोवा पर मेरा विश्वास और भरोसा बढ़ रहा है।
रखने की मंज़ूरी दे दी। मैं वहाँ की लड़कियों के साथ अपनी इस आशा के बारे में भी बात करती थी कि बहुत जल्द यह धरती फिरदौस में बदल जाएगी और वहाँ कोई बीमार न होगा, मैं वहाँ हमेशा-हमेशा तक जी सकूँगी। (एक लंबे अरसे यानी छ: महीने बाद, डॉक्टरों ने मुझे घर भेजा। मेरी बीमारी कम तो नहीं हुई, लेकिन मैं यह सोचकर खुश थी कि अब मैं मम्मी-पापा के साथ रह सकती हूँ। मेरे जोड़ों में दर्द बढ़ गया था और वे टेढ़े हो गए थे। मैं इसी कमज़ोर हालत में बड़ी हुई। चौदह साल की उम्र में मैंने बपतिस्मा लिया और ठान लिया कि मुझसे जितना हो सकेगा मैं यहोवा की सेवा में अपना भरसक करूँगी। लेकिन कभी-कभी मैं निराश हो जाती थी और मेरे मन में सवाल उठते थे। मैं यहोवा से प्रार्थना में पूछती थी, ‘आखिर मैं ही क्यों? मुझे जल्दी ठीक कर दो, क्या आप नहीं देख रहे कि मैं कितनी तकलीफ में हूँ?’
मेरे लिए किशोर उम्र बहुत मुश्किल-भरी थी। मुझे यह मानना ही पड़ा कि अब मैं ठीक नहीं हो पाऊँगी। मैं अकसर अपनी तुलना दोस्तों से करती और खुद को बहुत लाचार महसूस करती थी। मैं लोगों से बात करने से शर्माने लगी। लेकिन मेरे परिवार और मेरे दोस्तों ने मुझे सँभाला। मुझे अभी भी एलीसिया को याद करके खुशी होती है जो मुझसे बीस साल बड़ी थी और मेरी सच्ची सहेली थी। उसने मुझे अपनी बीमारी और परेशानियों के बारे में सोचते रहने के बजाए, दूसरों में दिलचस्पी लेना सिखाया।
मकसद-भरी ज़िंदगी जीने की कोशिश करना
जब मैं 18 साल की थी तब यह बीमारी फिर से लौट आयी, इसका असर इतना ज़बरदस्त था कि मेरा मसीही सभाओं में हाज़िर होना मुश्किल हो गया था। लेकिन घर पर बिताए ‘खाली वक्त’ का मैंने पूरा फायदा उठाया, मैंने गहराई से बाइबल की जाँच की। अय्यूब और भजन संहिता की किताबों ने मुझे यह समझने में मदद दी कि आज यहोवा शारीरिक तौर पर नहीं बल्कि आध्यात्मिक तौर पर हमारी परवाह करता है। बार-बार प्रार्थनाएँ करने से मुझे वह ताकत मिली जो “आम इंसानों की ताकत से कहीं बढ़कर है” और “परमेश्वर की वह शांति जो हमारी समझने की शक्ति से कहीं ऊपर है।”—2 कुरिंथियों 4:7; फिलिप्पियों 4:6, 7.
बाइस साल की उम्र में मैं व्हीलचेयर पर आ गयी। मुझे डर था कि लोग मुझे नहीं बल्कि व्हीलचेयर पर बैठी एक बीमार औरत को देखेंगे। लेकिन व्हीलचेयर की वजह से मुझे थोड़ी आज़ादी मिल गयी थी और मेरी यही “कमी” मेरे लिए एक आशीष साबित हुई। मेरी एक सहेली थी, ईज़ाबेल। उसने मुझे अपने साथ एक महीने के लिए प्रचार में 60 घंटे बिताने का लक्ष्य रखने को कहा।
यह सुनते ही मुझे बहुत अजीब लगा। लेकिन मैंने यहोवा से मदद माँगी साथ ही, परिवारवालों और दोस्तों ने जो मेरा साथ दिया, उससे मैं अपने लक्ष्य में कामयाब हो पायी। वह महीना मेरे लिए बहुत व्यस्त था लेकिन पता ही नहीं चला कि पूरा महीना कैसे बीत गया। यही नहीं इस दौरान मेरा डर और घबराहट दोनों दूर हो गए। यह महीना मुझे इतना अच्छा लगा कि सन् 1996 में मैंने पायनियर सेवा शुरू की यानी हर महीने एक निर्धारित समय प्रचार में बिताने का फैसला किया। यह मेरे बेहतरीन फैसलों में से एक था। इससे मैं परमेश्वर के करीब आ पायी और मुझे शारीरिक तौर पर मज़बूती भी मिली। प्रचार में हिस्सा लेने से मैं कई लोगों को अपने विश्वास के बारे में बता पायी और कुछ लोगों को परमेश्वर का दोस्त बनने में मदद दे पायी।
यहोवा मुझे थामे रहता है
सन् 2001 की गर्मियों में, मेरे साथ एक हादसा हुआ। एक कार दुर्घटना में मेरे दोनों पैर टूट गए। दर्द से तड़पती हुई जब मैं अस्पताल में लेटी थी, तब मैं गिड़गिड़ाकर यहोवा से मन-ही-मन प्रार्थना करती कि “हे यहोवा, मुझे मत छोड़ना।” बगलवाले बिस्तर पर लेटी एक औरत ने कहा: “क्या तुम यहोवा की साक्षी हो?” मुझमें जवाब देने की ताकत नहीं थी, मैंने हाँ में सिर हिला दिया। उसने कहा: “मैं आप लोगों को जानती हूँ। अकसर मैंने आपकी पत्रिकाएँ पढ़ी हैं।” इन शब्दों से मुझे बहुत दिलासा मिला। इस हालत में भी मैं यहोवा के बारे में गवाही दे पायी। यह क्या ही सम्मान की बात थी!
जब मैं थोड़ी ठीक हुई तब मैंने और गवाही देने की सोची। मेरे दोनों पैरों पर प्लास्टर चढ़ा था, फिर भी माँ मुझे व्हीलचेयर पर पूरे वार्ड में घुमाने ले जाती। हर दिन, हम कुछ मरीज़ों से मिलते, उनका हाल-चाल पूछते और उनके पास कुछ बाइबल साहित्य छोड़ जाते। ये मुलाकातें मेरे लिए थकान-भरी थीं, फिर भी यहोवा से मुझे ज़रूरी ताकत मिलती रही।
बीते कुछ सालों में मेरा दर्द और भी बढ़ गया था, पापा की मौत से मैं और दुखी हो गयी थी। ऐसे हालातों में भी मैं सही नज़रिया बनाए रखने की कोशिश करती हूँ। कैसे? जब भी मुमकिन होता है, मैं अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ समय बिताती हूँ,
जिससे परेशानियों से मेरा मन हट जाता है। और जब मैं अकेली होती हूँ, तब मैं बाइबल पढ़ती, अध्ययन करती या फिर फोन पर दूसरों को प्रचार करती हूँ।अकसर मैं अपनी आँखें बंद करके “मन की आँखों” से खुद को उस नयी दुनिया में देखती हूँ, जिसका परमेश्वर ने वादा किया है
मैं कुछ पलों का मज़ा भी लेती हूँ जैसे, ठंडी हवा चेहरे पर महसूस करना या फिर फूलों की खुशबू का आनंद लेना। यहोवा को शुक्रिया कहने की मेरे पास ये कुछ वजह हैं। मज़ाकिया मिज़ाज बनाए रखने से भी मुझे मदद मिलती है। एक दिन जब मैं अपनी सहेली के साथ प्रचार पर निकली, तो वह मुझे व्हीलचेयर पर ले जा रही थी, अचानक वह कुछ लिखने के लिए रुक गयी। मैं व्हीलचेयर पर ढलान से लुढ़कती हुई, एक खड़ी कार से जा टकरायी। हम दोनों सदमे में एक-दूसरे को देख रहे थे, जब हमें लगा घबराने की कोई बात नहीं है, तब हम ठहाके मारके हँसने लगे।
ज़िंदगी में ऐसी बहुत-सी चीज़ें हैं जो मैं नहीं कर सकती। ये मेरी ऐसी ख्वाहिशें हैं जो पूरी होनी बाकी हैं। अकसर मैं अपनी आँखें बंद करके मन की आँखों से खुद को उस नयी दुनिया में देखती हूँ, जिसका परमेश्वर ने वादा किया है। (2 पतरस 3:13) वहाँ मैं खुद को तंदुरुस्त, चलता-फिरता और ज़िंदगी का मज़ा लेते हुए देखती हूँ। राजा दाविद के ये शब्द मेरा दिल छू जाते हैं: “यहोवा की बाट जोहता रह; हियाव बान्ध और तेरा हृदय दृढ़ रहे।” (भजन 27:14) हालाँकि दिनों-दिन मेरा शरीर कमज़ोर होता जा रहा है, लेकिन वहीं यहोवा मुझे मज़बूत बना रहा है। मैं अपनी कमज़ोरियों में भी ताकत पाती हूँ। ▪ (w14-E 03/01)