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बनूँ और भी मज़बूत!

बनूँ और भी मज़बूत!
  1. 1. “सही राह मैं कैसे चुनूँ? क्या करूँ? मैं जानूँ ना।”

    मन में ऐसी थी हलचल, दिल था परेशाँ,

    इतने थे सवाल!

    मुझे तब सच्‌-चा-ई को ही थाम के चैन मिला।

    जब असर करे दुन्‌-या मेरी सोच पे,

    दुआ मैं करूँ:

    (कोरस)

    “याह, दे ईमान, कि हों शक दूर,

    पुकारूँ ज़ोर से, सुन ले तू!

    यहोवा कर मदद मेरी,

    ताकि कर सकूँ ईमान मेरा और मज़बूत!

    बनूँ मज़बूत!

    करूँ शक दूर!

    बनूँ मज़बूत!”

  2. 2. ना रहा आज सही-गलत में फर्क कुछ भी इस दुन्‌-या में;

    बनूँ ना मैं लापरवाह, रहूँ मैं चौ-कन्‌-ना,

    बिछे हैं कई जाल!

    देखूँ ना मुड़के, कहीं गुमराह ना हो जाऊँ!

    हरदम यहोवा के संग मैं चलूँ,

    उसी पे है यकीं!

    (कोरस)

    “याह, दे ईमान, कि हों शक दूर,

    पुकारूँ ज़ोर से, सुन ले तू!

    यहोवा कर मदद मेरी,

    ताकि कर सकूँ ईमान मेरा और मज़बूत!

    बनूँ मज़बूत!

    करूँ शक दूर!

    बनूँ मज़बूत!”

    (खास पंक्‍तियाँ)

    जवाब मिले रोज़ याह से, गर सुनूँ मैं;

    हो आयत या गीत, या हो बात किसी की,

    इन पे सोचूँ दिन-रात, मिले ताकत मुझे

    रखने ईमान।

    (कोरस)

    “याह, दे ईमान, कि हों शक दूर,

    पुकारूँ ज़ोर से, सुन ले तू!

    यहोवा कर मदद मेरी,

    तभी मैं कर सकूँ ईमान मेरा और भी मज़बूत!

    बनूँ मज़बूत!

    करूँ शक दूर!

    बनूँ मज़बूत!

    बनूँ मज़बूत!

    करूँ शक दूर!

    बनूँ मज़बूत!”